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पर्यावरण अध्ययन क्यों पढ़ाएँ ?



 पर्यावरण अध्ययन पाठ्यक्रम के सरोकार, अवधारणाओं का बनना

पर्यावरण अध्ययन अति आवश्यक विषय है, क्योंकि यह स्वच्छ एवं सुरक्षित पेयजल, स्वास्थ्यपूर्ण जीवनोपयोगी अवस्था म एवं स्वच्छ वायु, उपजाऊ भूमि, स्वास्थ्यवर्धक भोजन भाषा विकास आदि इसी से सम्बन्धित है। पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने के लिए प्रत्येक स्तर पर प्रशिक्षित मानव शक्ति की आवश्यकता है। पर्यावरणीय निगम, व्यवसाय प्रवन्धन तथा पर्यावरणीय प्रौद्योगिकी आदि पर्यावरण के बचाव तथा प्रबन्धन के क्षेत्र में नवीन रोजगार के अवसर के रूप में उभर कर सामने आ रहे है। प्रदूषण नियन्त्रण के नियम कठोर होने के कारण उद्योगों को अपने मलबे के निस्तारण में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। अब अनेकों कम्पनियाँ अत्यधिक खर्च तथा विवादों से बचने के लिए हरित प्रौद्योगिकी को अपनाने की कोशिश कर रही है जिससे प्रदूषण को कम किया सकेगा। प्रदूषण नियन्त्रण प्रौद्योगिकी पर खर्च करने से प्रदूषण तो कम होगा ही, साथ ही यह गन्दे बहाव के उपचार पर भी कम कर देगा। प्रदूषण नियन्त्रण प्रौद्योगिकी की आज सम्पूर्ण संसार में अत्यधिक माँग है। कम्पनियों तथा कारखानों में उत्पन्न व्यर्थ र पर होने पदार्थों के निस्तारण का बाजार भी अच्छा है), अमेरिका में प्रतिवर्ष इस क्षेत्र का व्यापार 100 बिलियन डॉलर के लगभग रहता है। पिछले वाले खर्च को कई वर्षों से कठोर नियमों को अपनाकर जर्मनी तथा जापान व्यर्थ पदार्थों के प्रवाह को नियन्त्रित करने में अत्यन्त अनुभवी हो चुके हैं। अकेले प्राचीन पूर्वी जर्मनी की सफाई के लिए आज भी इस क्षेत्र में लगभग 200 बिलियन डॉलर का बाजार है। भारत में भी प्रदूषण नियन्त्रण परिषद् नियन्त्रण के नियमों का कड़ाई से पालन करने तथा व्यर्थ पदार्थों के जमीन अथवा पानी में छोड़ने से पूर्व मानक स्तर पर लाने के लिए उनके उत्थान पर जोर दे रहे हैं। ऐसी कई कम्पनियों को या तो बन्द कर दिया गया है या फिर उन्हें स्थानान्तरित करने का आदेश दे दिया गया है जो इन नियमों के अनुरूप कार्य नहीं कर रही है। यदि हम एक साफ, स्वच्छ, सुन्दर तथा सुरक्षित वातावरण में जीना चाहते हैं और अपनी आने वाली पीढ़ियों को स्वच्छ तथा सुरक्षित पृथ्वी प्रदान करना चाहते हैं तो ऐसा करना अति आवश्यक है।

इस तरह हम देखते हैं कि पर्यावरण सभी से सम्बद्ध है तथा सभी के लिए आवश्यक भी कोई व्यक्ति चाहे किसी भी व्यवसाय से सम्बन्धित हो तथा किसी भी आयु का हो, पर्यावरण से समान रूप से प्रभावित होता है तथा अपने कार्यों द्वारा वह पर्यावरण को भी प्रभावित करता है। इस प्रकार पर्यावरण एक ऐसा विषय है जिसका स्वभाव वास्तव में सार्वभौमिक है। उदाहरणस्वरूप वायुमण्डल की कोई सीमारेखा नहीं है और किसी एक स्थान पर उत्पन्न होने वाले प्रदूषक तत्त्व आसानी से अन्य स्थानों तक पहुँच सकते हैं। किसी स्थान पर शहरों अथवा कारखानों के गन्दे पानी द्वारा दूषित की गई नदी के जल का प्रभाव इसके निचले भागों में उपस्थित जल जीवन को अवश्य प्रभावित करता है। इसी प्रकार पहाड़ों पर स्थित बनों की क्षति, केवल पहाड़ों को ही नहीं वरन् दूर-दूर तक स्थित मैदानी भागों को भी समान रूप से प्रभावित करती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि पर्यावरण विभिन्न अवयवों तथा उनके कार्यकलापों से बना जटिल तन्य है। वैसे तो पर्यावरण सम्बन्धी अनेकों क्षेत्रीय समस्याएँ हैं, परन्तु भूमंडलीय ताप का बढ़ना, ओजोन परत में क्षति, वनों तथा ऊर्जा संसाधनों में कमी, जैव-विविधता का लोप आदि कुछ अति महत्त्वपूर्ण समस्याएँ भी हैं जो कि समस्त मानव जाति को प्रभावित करने वाली समस्याएँ है और इनके निवारण के लिए हम सभी को विश्व स्तर पर एक साथ सोच-विचार करने की आवश्यकता है। खनन अथवा जल विद्युत् परियोजनाओं का प्रभाव, ठोस कूड़े-करकट का प्रबन्धन इत्यादि स्थानीय समस्याओं से निपटने के लिए हमें स्थानीय रूप से सोचना पड़ता है और उसके निदान के लिए वही कार्य करना पड़ता है। पर्यावरण के विभिन्न महत्त्वपूर्ण विषयों के बारे में लोगों को जागरूक बनाने के लिए सभी को पर्यावरणीय ज्ञान प्रदान करना अति आवश्यक है।


प्राथमिक स्तर पर पर्यावरण अध्ययन की अवधारणाएँ

प्राथमिक स्तर पर्यावरण अध्ययन की अवधारणाओं के अन्तर्गत यह समझने का प्रयास किया जाता है कि प्राथमिक स्तर पर पर्यावरण की शिक्षा देना क्यों आवश्यक है। प्राथमिक स्तर पर पर्यावरण अध्ययन की कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाएं निम्नलिखित है 

1. पर्यावरण शिक्षा निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, अतः प्राथमिक स्तर से ही इसका शिक्षण आवश्यक है। 

2. पर्यावरण वह पक्ष है जिसने पृथ्वी को जीवित जगत का गौरव प्रदान किया है। मानव सहित सभी जीव पर्यावरण की ही देन हैं।इस दृष्टिकोण से पर्यावरण अध्ययन की महत्ता और बढ़ जाती है। बालक अपने जीवन में पर्यावरण के महत्त्व को आत्मसात कर सके इसके लिए आवश्यक है कि इससे संबंधित शिक्षा को प्राथमिक स्तर के पाठ्यक्रम में ही शामिल किया जाए। 

3. आज पर्यावरण प्रदूषण एक बहुत बड़ी समस्या है। इस प्रदूषण के मूल में मानव और उसकी जीवन संबंधी आदते हैं, जिससे विवश होकर वह भौतिक सुखों के लिए पर्यावरण का दोहन कर रहा है। यदि चाहते हैं कि बच्चों में अच्छी आदतें डालकर उन्हें पर्यावरण संरक्षण के प्रति सजग बनाएँ तो यह कार्य हमें प्राथमिक स्तर पर ही प्रारम्भ करना होगा। 

4. शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों में पर्यावरण को समझते हुए इसके अनुरूप व्यवहार करने की शिक्षा प्रदान करना भी शामिल हैं। बालक अपने पर्यावरण एवं उसमें होने वाली घटनाओं को समझते हुए उसके अनुकूल एवं उपयुक्त व्यवहार करे इसके लिए आवश्यक है कि उसे प्राथमिक स्तर से ही इसकी शिक्षा प्रदान की जाए। 

5. पर्यावरण संरक्षण क्यों आवश्यक है ? प्रदूषण क्या है एवं इसका समाधान क्या हो सकता है? इन प्रश्नों के उत्तर को समझाने के लिए बालकों की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। बालक को सैद्धान्तिक तरीके से इनकी अवधारणाओं से अवगत नहीं करा सकते और यदि इस समस्या से बचने के लिए हमने प्राथमिक स्तर पर बच्चों को इसके सम्बन्ध में शिक्षा नहीं दी, तो यह आवश्यक नहीं कि वे आगे चलकर पर्यावरण के हितैषी साबित हो और यदि उन्हें भविष्य में पर्यावरण का हितैषी बनाना है तो उनकी सक्रिय भागीदारी वाले पाठ्यक्रम सहित पर्यावरण अध्ययन को प्राथमिक स्तर में शामिल किया जाना आवश्यक है।

6. पर्यावरण अध्ययन के अन्तर्गत मुख्य रूप से जैवमण्डल का अध्ययन किया जाता है क्योंकि जैवमण्डल में जितने भी जीव हैं वे पर्यावरण द्वारा प्रभावित होते हैं। जैवमण्डल के सभी जैविक एवं अजैविक घटकों की विशेषताओं एवं अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन पर्यावरण अध्ययन की विशिष्टता है। अतः इसका अध्ययन आवश्यक है। 

7. पर्यावरण के तत्त्वों का अध्ययन जिनमे स्थलमण्डल, वायुमण्डल के घटक प्रमुख हैं, के अध्ययन की महत्ता और बढ़ जाती है। 

8. पर्यावरण शिक्षा औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों ही प्रकार से चलनी चाहिए और इसकी शुरूआत प्राथमिक स्तर पर ही हो जानी चाहिए।

9. पर्यावरण संरक्षण के दृष्टिकोण से अनुशासन एवं नियमों का पालन करते हुए इस बात का ध्यान रखना आवश्यक हो जाता है। कि हमारे कार्यकलापों से पर्यावरण को किसी प्रकार को कोई हानि तो नहीं हो रही। इसलिए इससे सम्बन्धित अच्छी आदतों के विकास का प्रयास बाल्यकाल में ही शुरू कर देना चाहिए। 

10. पर्यावरण समस्याओं की जटिलता को समझना तथा समस्या समाधान की क्षमता एवं विश्लेषणात्मक चिन्तन के विकास के लिए भी यह आवश्यक है कि इसकी शिक्षा प्राथमिक स्तर से ही प्रारम्भ होनी चाहिए।


कौशल

किसी भी कार्य की सम्पन्न करने की कला को कौशल कहा जाता है। जैसे लेखन कौशल, अभिव्यक्ति कौशल, पठन कौशल, भाषण कौशल, प्रबन्धन कौशल इत्यादि। व्यक्ति जिस कार्य को जितनी कुशलता से सम्पन्न करने की क्षमता रखता है वह उस कार्य में उतना ही कुशल या दक्ष कहलाता है। कौशल को हम दक्षता, क्षमता या निपुणता भी कह सकते हैं, किन्तु सही अर्थों में देखा जाए तो कौशल इन सब अर्थों से भी अतिरिक्त अर्थ रखता है। क्षमता से केवल कार्य करने की शक्ति का अर्थ निकलता है, दक्षता एवं निपुणता से कार्य करने की कुशलता का पता चलता है, जबकि कौशल में कार्य करने की कुशलता के साथ-साथ कार्य को उपयुक्त तरीके से करने का अर्थ भी समाहित है। कोई व्यक्ति थोड़ा-बहुत लिखना जानता है, इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि वह सम्पूर्ण रूप में लिखने में कुशल है। वह लेखन में कुशल है ऐसा तभी कहा जा सकता है, जब वह वास्तव में अपनी बात को शुद्ध एवं व्याकरणा सम्मत भाषा में लिखकर व्यक्त करने में सक्षम हो।


कौशल का विकास

कौशल के विकास के लिए पर्याप्त अभ्यास की आवश्यकता होती है। किसी भी कार्य में कुशलता अचानक ही नहीं आती। धीरे-धीरे ही किसी कार्य में व्यक्ति कुशल हो पाता है। उदाहरण के रूप में बालक शैशवावस्था में बोल पाते में असमर्थ होता है। कुछ वर्षों बाद वह कुछ शब्दों का जानकार होता है एवं इसी तरह अपने भाषायी ज्ञान को बढ़ाते हुए वह एक दिन अपनी बात को बोलकर अच्छी तरह से व्यक्त करने में सक्षम हो जाता है। बालक पहले बोलना सीखता है, उसके बाद पढ़ना एवं उसके बाद लिखना। उसके बाद इन सभी कौशलों का विकास एक साथ होता रहता है। इन सभी का एक-दूसरे से घनिष्ट सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरे में निपुणता प्राप्त करना कठिन है। ऐसा ही अन्य कौशल के साथ भी है। बालक की किसी कार्य को सम्पन्न करने की कुशलता के आधार पर यह तय किया जा सकता है उसे भविष्य में किस प्रकार का व्यवसाय अपनाना चाहिए। जैसे कोई बालक अभिव्यक्ति कौशल में निपुण होता है, तो यह कहा जा सकता है उसे पत्रकारिता, शिक्षण या ऐसे किसी क्षेत्र में कैरियर बनाना चाहिए, जिसमें उसके कौशल का लाभ उसे अच्छी तरह: मिले। इसी तरह यदि कोई बालक चित्र बनाने में कुशल है, जबकि गणित के प्रश्नों से वह दूर भागता है, तो उसे वाणिज्य या अभियांत्रिकी में कैरियर बनाने की सलाह देने की अपेक्षा में चित्रकला में कैरियर बनाने की सलाह देना अधिक उपयुक्त होगा। ऐसा इसलिए भी आवश्यक है कि बालक के कौशल के विकास में उसकी रुचि एवं अभिप्रेरणा की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

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